अतिशय क्षेत्र जलालाबाद परिचय

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिले मुज़फ़्फ़रनगर में स्थित है अतिशय क्षेत्र श्री 1008 पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, जलालाबाद। भारत की स्वतंत्रता से भी पहले यहाँ प्रतिमाओं को सुरक्षित रखा गया था। पहले वर्तमान मंदिर जी के स्थान पर एक कमरा हुआ करता था। वर्ष 1970 में जैन संत आचार्य विधानंद जी महाराज विहार करते हुए जैन मंदिर पहुंचे। उन्होंने क्षेत्र को प्राचीन व अतिशय बताया। उन्होंने प्रतिमाओं को योग्य स्थान पर विराजमान करने को कहा। महाराज की प्रेरणा से प्राचीन मंदिर व अतिशय क्षेत्र की जीर्णोद्धार भावना जैन समाज में भी उत्पन्न हुई। मंदिर जीर्णोद्धार 1979 से शुरू हुआ। 26 जून 1980 को प्रतिष्ठा पश्चात प्रतिमा प्राचीन वेदी में स्थापित की गई। वर्ष 1983 में आयोजित वार्षिक रथयात्रा में आचार्य शांति सागर जी महाराज की प्रेरणा से नवीन शिखर का निर्माण किया गया। मंदिर जी में राजस्थान के कुशल कारीगरों द्वारा पत्थरों की नक्काशी से दीवारों पर जैन धर्म का सार समझाया गया है। प्रतिवर्ष अतिशय क्षेत्र में चार अगस्त को भगवान पार्श्वनाथ मोक्ष कल्याणक महोत्सव में उत्तर भारत के कोने-कोने से जैन श्रद्धालु आते है। यहाँ प्रथम विराट वार्षिक रथयात्रा महोत्सव 1962 व 1963 रामपुर मनिहारन व आसपास जैन समाज के लोगों ने भव्य तरीके से आयोजन किया। वर्ष 1980 के बाद से विराट वार्षिक रथयात्रा महोत्सव में श्रद्धालुओं का जन सैलाब उमड़ने लगा।
वर्तमान में रोजाना सैकड़ों श्रद्धालु उत्तर भारत के कोने-कोने से भगवान पार्श्वनाथ के दर्शन के लिए आते हैं। चार अगस्त 2022 में आयोजित मोक्ष कल्याणक महोत्सव में हजारों जैन श्रद्धालु मंदिर में आकर धर्म लाभ लिया। श्री 1008 पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र में भगवान पार्श्वनाथ जी की पाँच इंच से कम लघु पाषाण प्रतिमा अत्यंत प्राचीन है। उत्तर भारत के अतिशय क्षेत्रों में जलालाबाद एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहाँ भगवान पार्श्वनाथ जी की लघु पाषाण प्रतिमा है। भगवान पार्श्वनाथ की अतिशयकारी प्रतिमा के दर्शनमात्र से श्रद्धालुओं की मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। प्राचीन प्रतिमाओं को मंदिर जी की मूल वेदी में रखा गया है। प्रचलित है कि एक बार रामपुर मनिहारन व आसपास के क्षेत्र के जैन समाज के लोग प्रतिमाओं को रामपुर मनिहारन ले गए थे। रात को स्वप्न में प्रतिमाओं को वापस जलालाबाद में स्थापित करने की चेतावनी मिली। जिस कारण रामुपर मनिहारन से सकल जैन समाज ने विधिवत प्रतिमाओं को प्राचीन मंदिर में स्थापित करके क्षमा याचना की। यह क्षेत्र भगवान पार्श्वनाथ जी की पाषाण प्रतिमा के अतिशय के कारण से जलालाबाद का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बना है।
जैन समाज एवं धर्मशाला
श्री 1008 पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र जलालाबाद में जैन समाज का केवल एक परिवार होने के बावजूद भी मंदिर जी में सैकड़ो श्रद्धालुओं का आगमन होता है। मंदिर जी के परिसर के बाहर की ओर जैन साधु महाराज जी के विश्राम हेतु त्यागी भवन का निर्माण किया गया है। मंदिर जी में आने वाले यात्रियों के लिए दो यात्री भवन का निर्माण किया गया है, जिनमे से एक प्राचीन धर्मशाला है तथा दूसरे में आधुनिक सुविधा से युक्त कमरे ए.सी. व नोन ए.सी. की सुविधा के साथ उपलब्ध है। अतिशय क्षेत्र में होम्योपैथिक अस्पताल का निर्माण भी किया गया है।
जलालाबाद क्षेत्र के बारे में
पश्चिम उत्तर प्रदेश के जिला मुजफ्फरनगर में जलालाबाद नामक एक क़स्बा है। जलालाबाद का इतिहास विभिन्न किंवदन्तियों, पौराणिक कथाओ एवं ऐतिहासिक घटनाओ से परिपूर्ण है। इसका इतिहास अति प्राचीन है। गंगा यमुना दोआबा क्षेत्र को ईश्वर ने भूमण्डल पर जैसी अपार प्राकृतिक, दैव्य सम्पदाओं से सम्पन्नता दी है वैसी इतिहास से जुड़ी गौरवमयी गाथाएँ यहाँ अमरत्व हासिल किए हुए है। चाहे वह धार्मिक दृष्टि से या इतिहास के रूप में दोआबा की मिट्ठी में छुपे त्याग, बलिदान, संघर्ष, दया जैसी मूल्यों को श्रृंखलाबद्ध कर सकते है।
जलालाबाद एक समय राजपूत राजाओं का राजयत्व रहा। उस समय इस नगर को 'मनहार खेड़ा' के नाम से पुकारा जाता था। मुग़ल बादशाह शाहबुद्दीन शाहजहाँ ने अफगानी पठान मीर हज़ार खान को राजपूतो से लड़ने के लिए भेजा। इस लड़ाई में मीर हज़ार खान तथा उसकी चौदह हज़ार फ़ौज युद्ध में मारी गयी। इसके बाद मीर हज़ार खान के पुत्र जलाल खान ने अपनी चतुराई से अपने पिता का बदला लेते हुए 1444 राजपूतो को मौत का घाट उतारते हुए 'मनहर' खेड़ा को अपने आधीन कर इसका नाम जलालाबाद रख लिया। अर्थात जलाल के द्वारा बसाया गया। 340 वर्षो से यह नगर इसी नाम से जाना जाता है।
महाभारत काल में भी यह नगर था। यहाँ धौम्य ऋषि का आश्रम था। महाभारत के समय धर्मराज युधिष्ठर में अपने भाइयों तथा पत्नी द्रोपदी के साथ वनवास काल बिताया। ऋषि धौम्य के आदेश 105 दिन तक यज्ञ किया एवं कुए खोदे। बहुत सारे कुओं के अवशेष अब भी मिलते है, जिसका जल अत्यंत निर्मल है। पांडवो के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने भी इस भूमि को अपने चरण रज से पवित्र किया। इस स्थान पर कोई नदी नहीं थी। महारानी द्रौपदी बहते हुए पानी में स्नान करने की इच्छा व्यक्त करने पर अर्जुन ने धरती पर गांडीव चलाया। जिससे जल की धारा प्रवाहित हो उठी। बाद में नदी का रूप धारण किया। द्रौपदी का एक नाम कृष्णा भी है। इस नदी को कृष्णा नदी के नाम से पुकारा जाता है। यह नदी रामपुर मनिहारान के निकट एक खुले मैदान से आरम्भ होती है।
इस्लाम धर्म के पैगम्बर हजरत मोहब्बत साहब का 'जुब्बा सरीफ' (पहनने का लिवास) लगभग दो सौ वर्ष तक जलालाबाद में रहा। मुस्लिम इतिहास के अनुसार हजरत मोहम्मद साहब ने इस लिबास को ख्वाजा उवैस करनी को तोहफ़े में दिया था। ख्वाजा साहब ने लिबास को हजरत अली को वस्त्रगृह में रखवा दिया था। हजरत अली की मृत्यु के बाद मोहम्मद गजनवी ने इस लिबास को खुरासान ले गए, सुल्तान इब्राहिम लोदी देह लीन इसे हिंदुस्तान ले आये| फिर जलालुदीन अकबर बादशाह ने इसे पानीपत में रखा। जुब्बा शरीफ सैय्यद के पास था। किसी अज्ञात कारणों से, परिस्थितियों से जलालाबाद आ गया। नवाब दिलावर खान ने जुब्बा शरीफ की देखभाल के लिए माकूल जागीर जुब्बा शरीफ के खिदमतगारों के नाम कर दी। उस समय प्रत्येक रबिउल अव्वल माह की पहली तारीख को उसे आम लोगों की जियारत (दर्शन) के लिए रखा जाता था। सन 1957 में जुब्बा शरीफ को चोरी करके पाकिस्तान ले जाने के बाद जलालाबाद ने दुनिया की इस अमूल्य धरोहर को खो दिया।
समिति
जलालाबाद में जैन परिवारो की संख्या कम होने के बावजूद भी मंदिर जी का संचालन सुचारु रूप से होता है। मंदिर जी में व्यवस्थित रूप से समिति द्वारा कार्य किया जाता है। मंदिर समिति के सदस्य इस प्रकार है -
परम संरक्षक - कैलाश चंद्र जैन जी
मुख्य परामर्शदाता - जे.के. जैन जी, सतेंद्र जैन जी, तरुण जैन जी, राकेश जैन जी, सुभाष चंद्र जैन जी, मुकेश जैन जी, सतेंद्र कुमार जी, प्रदीप जैन जी, उमेश जैन जी, नरेंद्र जैन जी, सुभाष चंद्र जी, संदीप जैन जी, भूपेंद्र जैन जी